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लो॒कं पृ॑ण छि॒द्रं पृ॒णाथो॑ सीद ध्रु॒वा त्वम्। इ॒न्द्रा॒ग्नी त्वा॒ बृह॒स्पति॑र॒स्मिन् योना॑वसीषदन् ॥५९ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

लो॒कम्। पृ॒ण॒। छि॒द्रम्। पृ॒ण॒। अथो॒ इत्यथो॑। सी॒द॒। ध्रु॒वा। त्वम्। इ॒न्द्रा॒ग्नी इती॑न्द्रा॒ग्नी। त्वा॒। बृह॒स्पतिः॑। अ॒स्मिन्। योनौ॑। अ॒सी॒ष॒द॒न्। अ॒सी॒स॒द॒न्नित्य॑सीसदन् ॥५९ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:15» मन्त्र:59


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वही विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रि ! (त्वम्) तू इस (लोकम्) लोक तथा परलोक को (पृण) सुखयुक्त कर, (छिद्रम्) अपनी न्यूनता को (पृण) पूरी कर और (ध्रुवा) निश्चलता से (सीद) घर में बैठ (अथो) इसके अनन्तर (इन्द्राग्नी) उत्तम धनी ज्ञानी तथा (बृहस्पतिः) अध्यापक (अस्मिन्) इस (योनौ) गृहाश्रम में (त्वा) तुझ को (असीषदन्) स्थापित करें ॥५९ ॥
भावार्थभाषाः - अच्छी चतुर स्त्री को चाहिये कि घर के कार्यों के साधनों को पूरे करके सब कार्यों को सिद्ध करे। जैसे विदुषी स्त्री और विद्वान् पुरुषों की गृहाश्रम के कर्त्तव्य कर्मों में प्रीति हो, वैसा उपदेश किया करे ॥५९ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(लोकम्) इमं परं च (पृण) सुखय (छिद्रम्) (पृण) पिपूर्द्धि (अथो) (सीद) (ध्रुवा) निश्चला (त्वम्) (इन्द्राग्नी) इन्द्रः परमैश्वर्य्यश्चाग्निर्विज्ञाता च तौ (त्वा) त्वाम् (बृहस्पतिः) अध्यापकः (अस्मिन्) (योनौ) गृहाश्रमे (असीषदन्) सादयन्तु। [अयं मन्त्रः शत०८.७.२.६ व्याख्यातः] ॥५९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रि ! त्वं लोकं पृण, छिद्रं पृण, ध्रुवा सीद, अथो इन्द्राग्नी बृहस्पतिश्चास्मिन् योनौ त्वाऽसीषदन् ॥५९ ॥
भावार्थभाषाः - सुदक्षया स्त्रिया गृहकृत्यसाधनानि पूर्णानि कृत्वा कार्य्याणि साधनीयानि विदुषीणां च गृहाश्रमकृत्येषु प्रीतिर्यथा स्यात् तथोपदेष्टव्यम् ॥५९ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - चतुर स्त्रीने गृहकृत्ये करताना साधनांची पूर्तता करून सर्व कार्ये सिद्ध करावीत. गृहस्थाश्रमातील विद्वान व विदुषींची कर्तव्य कर्माची आवड वाढेल असाच उपदेश करावा.